Saturday, October 31, 2009

परी की कहानी सी लगे ये मेरी जिंदगानी !



मुझसे हमेशा कहती थी नानी
गुडिया गुड्डे और परियों की कहानी
ख्वाब , आंसू और मुस्कान के रिश्ते
राजा रानी, परियां और खुदा के फ़रिश्ते !

अपने साए को भी जब ढूंढ नहीं पाए
गम के अंधेरों में परछाइयां खो जाए
उदासी के अंधेरों में दर्द हद से गुज़र जाए
तब खुदा के फ़रिश्ता आके सब ठीक कर जाए  !

अनकहे दर्द के काफिले सी चल रही थी जिंदगी
ना तमन्ना ना मंजिल की जुस्तजू  थी कोई
बेसबब बेमकसद चली जा रही थी यूँ ही
यूँ लगा अँधेरे रास्तों में खो जाऊँगी कहीं  !

तन्हाई में एक दिन यादों के जंगल में जुगनू सा
एक अनजाना अजनबी हमसे ऐसे टकराया है
ना जाने क्यूँ लगा एक पल में ही वो अपना सा
जैसे खुदा ने मेरे लिए ही उसे फ़रिश्ता बनाया है  !

कभी सोचा ही ना था एक सुबह ऐसी भी आएगी
मेरी जिंदगी बस एक पल में यूँ बदल जायेगी
जिंदगी की तपती धूप  एक ठंडा साया लाएगी
उस फ़रिश्ते की दुआ से हर मुसीबत लौट जायेगी !

गम पोंछ कर मेरी आँखों में सतरंगी ख्वाब बनके
सारे दर्द भुला के वो मेरा हमदर्द बन गया
दूर तक हजारों चिराग जल उठे हैं मेरी राहों में
हर तरफ रोशन सितारे आ गए हम किन पनाहों में !

खामोशी मिटी रूह के तार जुड़े एहसास जगने लगे
दिल की कलियाँ कहने लगी मेरी मंजिल मिल गयी मुझे
राहें रोशन हो गयी हैं चमकते हुए सितारों के लिए
वो तो धड़कन है जैसे, मेरी धडकनों के लिए !

यूँ चुन के सतरंगी  ख्वाब मेरी पलकों पे
 सजायेगा मेरी सूनी सूनी सी  जिंदगानी
सपना है तो ये भ्रम कभी भी टूटे न मेरा 
परी की  कहानी सी लगे ये मेरी जिंदगानी !

Tuesday, October 27, 2009

गुलज़ार जी की कुछ और त्रिवेनियाँ



इतने लोगों में, कह दो अपनी आँखों से
इतना ऊंचा ना ऐसे बोला करें

लोग मेरा नाम जान जाते हैं !



सारा दिन बैठा में हाथ में लेकर खाली कासा
रात जो गुजरी चाँद की कौडी डाल गयी उसमे

सूदखोर सूरज कल मुझसे ये भी ले जायेगा !



आओ जुबानें बाँट ले अब अपनी अपनी हम
ना तुम सुनोगे बात न हमको समझना है

दो अनपढों को कितनी मोहब्बत है अदब से !



कुछ इस तरह तेरा खयाल जल उठा कि बस
जैसे दियासलाई जली हो अँधेरे में

अब फूँक भी दो वरना ये उंगली जलाएगा !



रात के पेड़ पर कल ही देखा था चाँद
बस पाक के गिरने ही वाला था

सूरज आया था जरा उसकी तलाशी लेना !



सांवले साहिल पे गुलमोहर का पेड़
जैसे लैला की मांग में सिन्दूर
धर्म बदल गया बेचारी का !



ऐसे बिखरे हैं दिन रात जैसे
मोतियों वाला हार टूट गया

तुमने मुझे पिरो के रखा था !



कोने वाली सीट पर अब दो कोई और ही बैठते हैं
पिछले चंद महीनो से अब वो भी लड्ते रहते हैं

क्लर्क हैं दोनों, लगता है अब शादी करने वाले हैं !



इतने अरसे बाद" हेंगर "से कोट निकाला
कितना लंबा बाल मिला है 'कॉलर "पर

पिछले जाडो में पहना था ,याद आता है !



चौदहवें चाँद को फिर आग लगी है देखो
फिर बहुत देर तक आज उजाला होगा

राख हो जाएगा तो कल फिर से अमावस होगी !



कुछ ऐसी एहतियात से निकला चाँद फिर
जैसे अँधेरी रात में खिड़की पे आओ तुम

क्या चाँद और ज़मीन में भी कुछ खिंचाव है !



ये माना इस दौरान कुछ साल बीत गए हैं
फिर भी आँखों में चेहरा तुम्हारा समये हुए हैं

किताबों पे धूल जमने से कहानी कहाँ बदलती है !



नाप के वक्त भरा जाता है ,हर रेत धडी में
इक तरफ़ खाली हो जब फ़िर से उलट देते हैं उसको

उम्र जब ख़त्म हो , क्या मुझ को वो उल्टा नही सकता ?



एक एक याद उठाओ और पलकों से पोंछ के वापस रख दो
अश्क नहीं ये आँख में रखे कीमती कीमती शीशे हैं

ताक से गिर के कीमती चीज़ें टूट भी जाया करती हैं !


आज वक़्त की कुछ कमी है तो आज के लिए बस यहीं तक , जैसे जैसे वक़्त मिलेगा मुझे इस माला में और मोती जुड़ते रहेंगे |

त्रिवेनियाँ - गुलज़ार जी
इमेज सोर्स - गूगल  

गुलज़ार जी और त्रिवेणी


गुलज़ार जी के बारे में क्या कहे जब भी गुलज़ार जी के बारे में कुछ कहने का सोचिये सबसे पहला ख्याल आता है त्रिवेणी का | जिस दिन पहली बार त्रिवेणी सुनी उस दिन से त्रिवेणी के और गुलज़ार जी के फैन हो गए | चंद लफ्जों में पूरी बात कह जाना वो भी इतनी सहजता से और सुगमता से, ऐसा जादू इतने कम शब्दों में जगाना इतना आसान भी तो नहीं |

आखिर ये त्रिवेणी है क्या तो आइये जानते हैं क्या है ये त्रिवेणी गुलज़ार जी के शब्दों में ही -
" शुरू शुरू में जब ये फॉर्म बनाई थी तो पता नहीं था की ये किस संगम तक पहुँचेगी , त्रिवेणी नाम इस लिए दिया था क्योंकि पहले दो मिसरे गंगा जमुना की तरह मिलते हैं और एक ख्याल एक शेर को मुकम्मिल करते हैं लेकिन इन दो धारों के नीचे एक और नदी है सरस्वती जो गुप्त है नज़र नहीं आती त्रिवेणी का काम सरस्वती को दिखाना ही है तीसरा मिश्रा पहले दो मिस्रो में ही कहीं गुप्त है छुपा हुआ है | "
दो मिसरों में बुना हुआ एक बहुत ही खूबसूरत सा ख़याल और फिर तीसरे मिसरे का आकर उस खयाल को एक नया ही नजरिया दे देना , यही वो जादू है जो हर त्रिवेणी पढने वाले के मुझ से वाह कहलवाए बिना नहीं रह सकता |
अगर कोई मुझसे पूछे मेरी पसंदीदा त्रिवेणी कौनसी है तो शायद कह पाना मुश्किल होगा क्योंकि सभी एक से बढ़कर एक, लाज़वाब
तो एक छोटी सी कोशिश कर रही हूँ अपनी सभी पसंदीदा त्रिवेणी यहाँ एकत्रित करने की जिससे शायद जो लोग अनजान हैं अब भी इनसे वो भी इन्हें पढ़ कर इनके फैन बन जाएँ |


सब पे आती है , सबकी बारी से
मौत मुंसिफ है कमोबेश नहीं

जिंदगी सब पे क्यों नहीं आती !



कोई चादर की तरह खींचे चला जाता है दरिया
कौन सोया है तले इसके जिसे ढूंढ रहे हैं

डूबने वाले को भी चैन से सोने नहीं देते !



हाथ मिला कर देखा और कुछ सोच के मेरा नाम लिया
जैसे ये सर्वार्क किस नोवल पे पहले देखा है

रिश्ते कुछ बंद किताबों में ही अच्छे लगते हैं !



जिंदगी क्या है जानने के लिए
जिंदा रहना बहुत ज़रूरी है

आज तक कोई भी रहा तो नहीं !



जुल्फ में कुछ यूँ चमक रही है बूँद
जैसे बेरी में एक तनहा जुगनू

क्या बुरा है जो छत टपकती है



पर्चियां बाँट रही हैं गलियों में
अपने कातिल का इंतेखाब करो

वक़्त ये सख्त है चुनाव का !



सामने आए मेरे देखा मुझे बात भी की
मुस्कराए भी ,पुरानी किसी पहचान की खातिर

कल का अखबार था ,बस देख लिया रख भी दिया !



आओ सारे पहन लें आईने
सारे देखेंगे अपना ही चेहरा

सबको सारे हंसी लगेंगे यहाँ !



मैं रहता इस तरफ़ हूँ यार की दीवार के लेकिन
मेरा साया अभी दीवार के उस पार गिरता है

बड़ी कच्ची सरहद एक अपने जिस्मों -जां की है !



उम्र के खेल में एक तरफ़ है ये रस्साकशी
इक सिरा मुझ को दिया होता तो इक बात थी

मुझसे तगड़ा भी है और सामने आता भी नहीं !



कुछ अफताब और उडे कायनात में
मैं आसमान की जटाएं खोल रहा था

वह तौलिये से गीले बाल छांट रही थी !

त्रिवेनियाँ - गुलज़ार जी
इमेज सोर्स - गूगल 

Saturday, October 24, 2009

कुछ मीठी यादें ~ दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे

सभी जानते हैं चवन्नीछाप हिंदी का मशहूर ब्लॉग है, समय, सिनेमा और संवेदना को समझने के लिहाज से. इस ब्लॉग के मॉडरेटर व चर्चित फ़िल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज जी ने दिलवाले दुल्हनिया ले के चौदह साल पूरे होने पर कुछ लिखने-यादें सांझा करने का न्योता दिया. तो उनके आदेश पर कुछ यादें लिखी हैं| चवन्नी से ही साभार यहां वही पीस उद्धृत है.. आपके कमेंट्स का इंतज़ार रहेगा


Friday, October 23, 2009
DDLJ ने लाखों सपने दिए,लेकिन...
-आकांक्षा गर्ग

आकांक्षा बंगलुरू में रहती और एक फायनेशियल कंपनी चलाती हैं।छठी कक्षा से कहानी-कविता लिखने का शौक जागा,जो जिंदगी की आपाधापी में मद्धम गति से चत रहा है।समय मिलते ही कुछ लिखती हैं। अभी निवेश के गुर सिखाती हैं और मदद भी करती हैं।आप उनसे iifpl@yahoo.com पर संपर्क कर सकते हैं।

१९९५ में जब यह फिल्म रिलीज़ हुई तब कॉलेज में आये- आये थे । फिल्मो से कुछ एलर्जी सी थी।लगता था टाइम वेस्ट मनी वेस्ट। मेरे फ्रेंड्स ने मेरा नाम रखा हुआ था किताबी कीडा, क्यूंकि लाइब्रेरी में सबसे ज्यादा टाइम गुजारना मेरा पसंदीदा शगल था । कॉलेज की सभी फ्रेंड जैसे इस मूवी के पीछे पागल हो गयी थी . उनका हॉट टोपिक हुआ करता था इस मूवी का डिस्कशन करना । कई बार उन्होंने कहा जाने के लिए लेकिन उन सब के रोज़-रोज़ के डिस्कशन ने इतना ज्यादा बोरियत कर दी तो कभी मूड ही नहीं हुआ । फ्रेंड्स ने नए- नए नाम रखने शुरू कर दिए। किसी ने कहा I am unromantic। किसी किसी ने तो ये भी कहा that I love the four letter word, HATE and I hate the four letter word,LOVE from the deep of my heart । अब मैं क्या करती, सबका अपना -अपना नजरिया होता है। सब उसी के हिसाब से सोचते हैं । मेरी प्रॉब्लम शायद यही थी कि मैं सपनो में भी लॉजिक ढूँढा करती थी। . मुझे हर चीज़ logical ही चाहिए . fantasy के लिए दिमाग में कोई जगह ही बाकी नहीं थी । लेकिन फ्रेंड्स वो तो फिल्म के पीछे पागल थी। शायद ये वो वक़्त था जब हर लड़का खुद को राज समझता था और हर लडकी को आईने में अपनी इमेज में सिमरन नज़र आती थी ।

आखिर एक दिन सबकी बहुत जिद पर हम भी चले गए फिल्म देखने । अच्छी लगी फिल्म, लेकिन as usual my habbit logic से कोसो दूर लगी। मूवी का लास्ट सीन अमरीश पुरी टिपिकल इंडियन पिताश्री और ट्रेन जा रही है सस्पेंस बढ़ रहा है । जिन फ्रेंड्स ने १० -१० बार पहले देखी है मूवी वो भी रोने के लिए बस जैसे तैयार ही बैठी हैं। अरे भाई all well educated ho इतना सस्पेंस किस लिए चैन पुलिंग करो, टी टी को ५० रु दो आराम से ले के जाओ हीरोईन को हाहा फिर भी अंत भला तो सब भला ।
बाहर आने के बाद सबने पूछा कैसी लगी फिल्म, हमने कहा अच्छी थी । मैंने देखा वो लोग खुश हैं अपने सपनों की दुनिया में . उन्हें लगता है कि दुनिया बस ऐसी ही होती है। एक उम्मीद होती है कि कुछ भी हो अंत में सब कुछ ठीक हो ही जायेगा ।कुछ खयालात कुछ सपने इतने मीठे और इतने नाज़ुक होते हैं कि उन्हें तोड़ने का दिल ही नहीं करता और ऐसे सपने तोड़ने भी नहीं चाहिए तो फिर मुझे लगा कि मुझे भी कोई हक नहीं बनता कि एक कड़वे सच के पत्थर से मैं उनके मीठे सपनो के महल को तोड़ दू ।

फिल्म ने लोगो को सोचने के लिए जीने के लिए लाखों सपने दे दिए। वाकई ऐसी ही तो होती है एक लड़की की जिंदगी। हमेशा सबके लिए सोचते -सोचते ज़िन्दगी ना जाने कहाँ निकल जाती है कि अपने लिए सोचने का वक़्त ही नहीं रह जाता।खुशकिस्मत होते हैं वो लोग जिनके सपने पूरे होते हैं । सपने जो अरमानों की तस्वीर होते हैं। सभी अपने सपनो को पूरा करना चाहते हैं ।कुछ सपने पूरे हो जाते हैं, कुछ पूरे नहीं होते, लेकिन एक चीज़ जो इस फिल्म ने दी सबको सोचने के लिए वो ये कि सपने देखना कभी छोड़ना नहीं चहिये ।

कुछ सपने बरक़रार रहें तो ही अच्छा, क्योंकि सपने हैं इसीलिए दिल में यकीन है कि एक दिन वो पूरे जरुर होंगे क्या बुरा है अगर मेरी फ्रेंड्स और उनके जैसे लाखो और लोग इसी सपने के साथ जिए और दूसरों को जीना सिखाएं
मैं अपने रियलिटी की दुनिया में ही बहुत खुश हूँ । बस कभी- कभार ऐसे सपनों भरी कहानियों में खो जाती हूँ और फिर आँख खुलते ही उन सपनो को अपने दिल के किसी कोने में छुपा लेती हूँ । कहानी की किताब को बंद कर लेती हूँ । कुछ कहानियां होती ही हैं इतनी खूबसूरत कि उन पर सच्चाई की तलवार नहीं चलनी चहिये। बस उन कहानियों के साथ कुछ हसीन पल बीत जाएं, यही बहुत है ।

कहानियां हमारे ज़ज्बातों की जीती जागती निशानियाँ होती हैं या फिर यूँ कह लीजिये कि शायद जिंदगी का ही अक्स होती हैं ,पर कल्पना के रंग भरकर इनको एक ख्वाब में तब्दील किया जाता है । इसमें कोई बुराई नहीं कि इंसान कुछ देर के लिए सच्चाई की दुनिया छोड़ कर कहनियों की दुनिया में खो जाए, क्योंकि कहानियों में सब ठीक होता है। end में सब ठीक होना ही पड़ता है और इसी से उम्मीद बनती है कि जिंदगी की इस असली ज़ंग में हम जरुर जीतेंगे ज़ंग जो बाहर वालों से है , सिस्टम से है या फिर शायद अपने आप से ..............................


 आप यह पोस्ट अजय जी के ब्लॉग पर भी पढ़ सकते हैं जिसका लिंक है -
http://chavannichap.blogspot.com/2009/10/ddlj_23.html