Friday, December 25, 2009

एक अकेली मैं हूँ और साथ मेरे मेरी तन्हाई



एक अकेली मैं हूँ और साथ मेरे मेरी तन्हाई
रात घिरी निस्तब्ध मगर मुझे नींद ना आई
दिलो को चीरते हैं खामोशियों के पसरे सन्नाटे
खोया खोया चाँद भी गुमसुम ख़ामोशी छाई !
आ जाए जो मुझे नीदं तो शायद आयें मीठे सपने
सपने में ही गर आ जाओ कभी तो मेरे अपने
तारों भरी रात में आंसुओं की बारात आई
गूंज रही हर इक पल तेरी यादों की शहनाई !
पलकों पर ठहरे हैं कुछ ओस के मोती मनके से
रुक जाए गर ये पल यही भर लूं मैं अंखियों में
धुंधले यादों के जंगल में फिरती हूँ बौराई
अब तक तुम ना आये सोच के हूँ अकुलाई !
जी चाहे मिल जाए मुझे इक आस का जुगनू
ना दूर तक रौशनी है ना ही कोई परछाई
खोलूँगी ना पलकें अपनी फिर कभी हो रुसवाई
एक अकेली मैं हूँ और साथ मेरे मेरी तन्हाई !



Monday, December 21, 2009

शायद ...इसीलिए परियां अब इस ज़मीन पर नहीं आती

कल का दिन मुझे व्यथित  कर गया | एक मित्र महोदया ने एक अजन्मी बच्ची की हत्या कर दी क्यूंकि उनको अपनी पहली संतान के रूप में एक बिटिया नहीं चाहिए थी कैसी त्रासदी है जब पढ़े लिखे जागरूक लोग ऐसी मानसिकता रखते हैं तो बाकि लोगो से कोई क्या उम्मीद रहे?
यक्ष प्रश्न ......क्या शिक्षा ने यही जागरूकता दी हमे ???????


एक माँ ही जब जन्म देती बेटी को तो फिर क्यूँ ऐसे रोती
जानती नहीं लाडली बेटियां ही तो माँ की परछाई होती !
कच्ची दीवारों के खोखले रिश्तो से अनजान हंसती गाती
रुनझुन रुनझुन क़दम बढ़ाती छन छन से पायल छनकाती !
कभी दस्तूरों तो कभी रिवाज़ के हाथों पल पल सताई जाती
निष्कासित इंसानियत के इस क्रंदन पर आँखे भर आती !
खली दामन खोखले रिश्ते बचाने को अग्नि परीक्षा दी जाती
जीवन जीने की तमन्ना हर बार बेबसी से यूँ कुचली जाती !
कभी जीते जी तो कभी पैदा होने से पहले ही मार दी जाती
आखिर क्यूँ बाबुल के घर में बेटियां इतनी पराई हो जाती !
सुबह की ओस चाँद की मेहँदी लगाये आस की लौ जगती 
दिए की चाह में चांदनी से जल बैठी सुलगती सी रहती !
पर कटी हैं, पैर कटी हैं  फिर भी ऐसे ही जीने को हैं मजबूर
इक बार नहीं सौ बार नहीं मर मर के हर पल में ये जीती !
कभी पी जाएँ गम का विष , तो कभी पंखे से उतारी जाती
लाल जोड़े के बहाने बेसबब , लाल कफ़न में दफनाई जाती !
बाबुल के घर की लक्ष्मी, अम्मा की लाडो बाबा की दुलारी
यूँ अचानक बिना बीमारी, अल्लाह को प्यारी हो जाती !
इस दश्त में मासूमियत जिल्लत सहती, इंसानियत मरती
भरोसे बिक जाते सरे राह जिंदगी बेज़ार सिसकती !
दिल ए रेगिस्तान में फंसी, जिंदगी के मिराज में भटकती
नाउम्मीदी होगी हासिल, मालूम है इनको अपनी हस्ती !
उम्मीदों के बादल की बरखा टीस का पानी बन झड जाती
शायद ...इसीलिए परियां अब इस ज़मीन पर नहीं आती !



सभी मित्रो से एक विनम्र निवेदन ~
अगर कुछ लोगो भी ये गुनाह कर पाने से हम रोक पाए
तो लगेगा की अब भी कुछ इंसानियत जिंदा है कहीं
कृपया इस पोस्ट का लिंक  को अपने सभी मित्रों को भेजे
शायद इस सोते हुए समाज को कुछ जागरूक कर पायें 

Friday, December 18, 2009

काश ... ज़िन्दगी ख्वाब ही होती तो अच्छा होता

लड़की की इच्छा क्या है , बस इक पानी का बुलबुला है
बनना चाहती है बहुत कुछ, करना चाहती है बहुत कुछ !
जाना चाहती हैं यहाँ वहां, देखना चाहती है सारा जहाँ
कल्पनाएँ करती रहती है ,सोचना चाहती है बहुत कुछ !
चाहती है सब कुछ समेट लेना ,पाना छूना चाहती है आस्मां
चाहती है सारी खुशियाँ पाना, होना चाहती है बहुत खुश !
नीले गगन में सपनो के, पर लगा कर बुलंदियां छूना 
जग से जीत जाने की धुन में, बुनना
रुपहली ख्वाब कुछ !
बेटा बन पहुंचना चाहती है ,जीवन की असीम ऊँचाइयों पर
पर लड़की होने के नाते , कुर्बान करना पड़ता है बहुत कुछ !
जहाँ पहुँचने से पहले ही , उसे एहसास दिला दिया जाता है
की तुम एक लड़की हो, सिर्फ और "सिर्फ एक लड़की" !
रेज़ा रेज़ा यूँ ज़मीर क़त्ल करने से तो बेहतर होता
काश ... ज़िन्दगी ख्वाब ही होती तो अच्छा होता !